सच कहा तुमने






सच कहा तुमने


सच कहा तुमने
उस कैदी की तऱ्हा ठूठ हो
विवश होता देख
मैने अपने हाथ खोले थे
मुर्दा जिस्म में चरागा कर गयी थी
कोई अंजान चाह
रगो में तुफान लिए दौड पडा था खून
सच कहा  तुमने
उसे देखकर मेरे अंदर
जंजिरो  के प्रति घृणा पैदा हुयी थी
और इक स्थिती के दुसरे स्थिती में
तबदील होने के बीच संक्रमण काल कि
यातनाओ से मुझे भी
गुजरना पडा था
सच कहा तुमने
नाली के बेहते पानी में पैर डालकर
सुवर के बच्चो को निहारता कबसे
मैं भी बच्चोसा बैठा रहा था कुछ पल
सपनो का चांद मन में उतारे हुए
सच कहा तुमने
मंदीर के पीछे वाले कमरे के मलबेसे
कोई शस्त्र धुंडने के फिराखं में मैने
उसके  कटे हुए हाथो को छुआ था
और कसके पकडा उन्हे अपनी मुठ्ठीयों के बिच
और अंधेरे को चिरने के लिए फहराता रहा
काली हवाओ  में
काले घोडे पर सवार
काला घुडसवार
काला लिबास पहने
हर बार बच निकलता
हर वार खाली जाता
हर बार इक थकान  मेरे जिस्म पर छाजाती
सच कहा तुमने
अंधेरे  चक्रव्यूव को तोडना
मेरे जिंदा रहने कि शर्त थी
तभी तो खुलना था
सुबह के सुरज के लिए मार्ग
तभी तो बूढी अम्मा की धुंधलायी आखोंमे
चमकता सुनहरा जादू
और मुन्नी के ओठोपर पडती
रुपह्ली धूप की धार ..

_ देवेंद्र  आंबेकर
   (३/४/१९८८)  

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